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ग़ज़ल
इन दिनों इश्क़ की फ़ुर्सत ही नहीं है वर्ना
उस दरीचे की उदासी तो बुलाती है मुझे
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
शाख़-ए-गुल हिलती नहीं ये बुलबुलों को बाग़ में
हाथ अपने के इशारे से बुलाती है बहार