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ग़ज़ल
क्यूँ अम्बर की पहनाई में चुप की राह टटोलें
अपनी ज़ात की बुनत उधेड़ें साँस में ख़ाक समो लें
अम्बरीन सलाहुद्दीन
ग़ज़ल
नवर्द-ए-हुस्न-ओ-तासीर-ओ-बुनत-कारी के बल के बा'द
हज़ारों साल में चश्म-ए-मोअन्नस झील होती है
तौहीद ज़ेब
ग़ज़ल
थीं बनात-उन-नाश-ए-गर्दुं दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उन के जी में क्या आई कि उर्यां हो गईं