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ग़ज़ल
बुतान-ए-महविश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं
कि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
बुतान-ए-माह-वश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं
कि जिस की जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
खुला अब रखते हैं पहलू मैं पिन्हाँ नाज़नीं पत्थर
न था मालूम हैं क़ल्ब-ए-बुतान-ओ-मह-जबीं पत्थर
हबीब मूसवी
ग़ज़ल
बुतान-ए-माह-वश इस घर की अक्सर सैर करते हैं
मिरा दिल और जिगर भी जा के बुत-ख़ाने में रख देना
मोहम्मद उमर
ग़ज़ल
अबलक़-ए-चश्म-ए-बुताँ की शोख़ियाँ चकरा गईं
आसमाँ पर मेहर-ओ-मह करते हैं सुब्ह-ओ-शाम रक़्स
बयान मेरठी
ग़ज़ल
ये अजीब साक़ी-ए-माह-वश तिरे मय-कदे का निज़ाम है
हुआ जैसे तू भी दिवालिया न तो ख़ुम न मय है न जाम है