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ग़ज़ल
वही मुज़ाफ़ातों के भेद भरे सन्नाटों वाले घर
गुड़ियों के लब सी कर उन का ब्याह रचाती दो-पहरें
इशरत आफ़रीं
ग़ज़ल
बाँधा है बर्ग-ए-ताक का क्यूँ सर पे सेहरा
किया 'आबरू' का ब्याह है बिंत-उल-एनब सेती
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
ब्याह दो आँख मूँद कर देखो करो न हाँ नहीं
इस के भी बाप माँ नहीं उस के भी बाप माँ नहीं
शैदा इलाहाबादी
ग़ज़ल
''करें न ब्याह, मिलें, सुख सुहाएँ फ़ल्सफ़ा ख़ूब''
तिरे बुज़ुर्गों की सब कज-कुलाही जाती है