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ग़ज़ल
यही डर सफ़हा-ए-आख़िर पे कैलेंडर के लिक्खा है
दिसम्बर सा कहीं कोई न फिर मंज़र निकल आए
शुजा फ़र्रुख़ी
ग़ज़ल
अहद भी उन ही का हम-ज़ेहन है सो चुप ही रहें
अगली सदियों के कैलेंडर न उठा लें ये कहीं
तारिक़ जामी
ग़ज़ल
खा गई हैं हिजरतें जब से मिरी ताज़ा ग़ज़ल
इस कैलेंडर में नज़र आता नहीं इतवार भी