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ग़ज़ल
कहीं तो लुटना है फिर नक़्द-ए-जाँ बचाना क्या
अब आ गए हैं तो मक़्तल से बच के जाना क्या
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
कहीं तो लुटना है फिर नक़्द-ए-जाँ बचाना क्या
अब आ गए हैं तो मक़्तल से बच के जाना क्या
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
वो हिलाल-ए-माह-ए-विसाल है दिल-ए-मेहरबाँ उसे देखना
पस-ए-शाम-ए-तन जो पुकारना सर-ए-बाम-ए-जाँ उसे देखना