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ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
उमैर नजमी
ग़ज़ल
तुम्हारे संग-ए-दर का एक टुकड़ा भी जो हाथ आया
अज़ीज़ ऐसा किया मर कर उसे छाती पे धर रक्खा
अमीर मीनाई
ग़ज़ल
घटा छाती बहार आती तुम्हारा तज़्किरा होता
फिर उस के बाद गुल खिलते के ज़ख़्म-ए-दिल हरा होता
नौशाद अली
ग़ज़ल
मूँग छाती पे जो दलते हैं किसी की देखना
जूतियों में दाल उन की ऐ 'ज़फ़र' बट जाएगी
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
सितम ऐ गर्मी-ए-ज़ब्त-ए-फ़ुग़ान-ओ-आह छाती पर
कभू बस पड़ गया छाला कभू फोड़ा निकल आया
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
तकते हैं उस क़द ओ रुख़्सार को हसरत से और आह
भेंच कर ख़ूब सा छाती से लगा सकते नहीं
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
कितनी उम्मीदों की शमएँ जलते ही बुझ जाती हैं
अब भी अन-चाहे छाती पर धर ही देते हैं सिल लोग
आबिद अदीब
ग़ज़ल
मैं ख़्वाबों के महल की छत से गिर के ख़ुद-कुशी कर लूँ
हक़ीक़त से अगर मुमकिन नहीं है दोस्ती मेरी
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
ये तीरगी-ए-शब ही कुछ सुब्ह-तराज़ आती
ख़ुद वादा-ए-फ़र्दा की छाती भी धड़क जाती