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ग़ज़ल
दरख़्तों पर इन्हें 'राग़िब' हमेशा चहचहाने दो
परिंदों को उड़ाने से किसी को कुछ नहीं मिलता
इफ़्तिख़ार राग़िब
ग़ज़ल
दरख़्तों की वो परछाई वो आँगन का खुला होना
कहाँ आती है अब चिड़िया घरों में चहचहाने को
हेमा काण्डपाल हिया
ग़ज़ल
हवा में झरनों में चिड़ियों के चहचहाने में
क़सम ख़ुदा की हैं नग़्मा-सराइयाँ क्या क्या
ज़की तारिक़ बाराबंकवी
ग़ज़ल
वो बिसात-ए-शेर-ओ-नग़्मा रतजगे वो चहचहे
फिर वही महफ़िल सजा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
वो मौसम जा चुका जिस में परिंदे चहचहाते थे
अब इन पेड़ों की शाख़ों पर सुकूत-ए-शाम लिख देना