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ग़ज़ल
रहा करते हैं क़ैद-ए-होश में ऐ वाए-नाकामी
वो दश्त-ए-ख़ुद-फ़रामोशी के चक्कर याद आते हैं
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
इन्हीं साँसों के चक्कर ने हमें वो दिन दिखाए थे
हमारे पाँव की मिट्टी हमारे सर पे रक्खी थी
राहत इंदौरी
ग़ज़ल
गर्दिश मस्त निगाहों की आख़िर वज्द-अंगेज़ हुई
चक्कर में 'साग़र' भी है दौर में है पैमाना भी
साग़र निज़ामी
ग़ज़ल
हम उस के वस्ल के चक्कर में ग़ारत हो गए आख़िर
किया होता जो हिज्र अच्छे-भले इंसान हो जाते
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
गो ज़मीन-ओ-आसमाँ मसरूफ़-ए-गर्दिश हैं मगर
जब भी गर्दिश का सबब सोचा तो चक्कर आ गया