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ग़ज़ल
ऐ मिरे माह-रू तिरी चश्म-ए-सितारा-साँ के बाद
चाँद की दीद क्या करें रूयत-ए-कहकशाँ के बाद
साइमा ज़ैदी
ग़ज़ल
रातों को तुझ से जागना गर कोई पूछे 'मुसहफ़ी'
चश्म-ए-सितारा बाज़ हैं उस को फ़लक दिखा कि यूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
मेहर-ए-अबद से काएनात बक्क़ा़-ए-नूर ता-जिहात
रात है और अँधेरी रात चश्म-ए-सितारा-साज़ में
बेख़ुद मोहानी
ग़ज़ल
देख हमारी दीद के कारन कैसा क़ाबिल-ए-दीद हुआ
एक सितारा बैठे बैठे ताबिश में ख़ुर्शीद हुआ
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
बद्र-ए-आलम ख़लिश
ग़ज़ल
जहाँ होते किसी चश्म-ए-सितारा-याब में होते
हम ऐसे लोग हर लहज़ा हिसार-ए-आब में होते
क़मर रज़ा शहज़ाद
ग़ज़ल
हैरत ने मेरी आँख में इक ख़्वाब रख दिया
चश्म-ए-सितारा-साज़ में खुलने लगा हूँ मैं