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ग़ज़ल
हिज्र में चटके जो ग़ुंचे हुई आवाज़ तुफ़ंग
सेहन-ए-गुलज़ार है मैदान-ए-सफ़-आराई का
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
सबा के दोष पर जैसे कली कोई कहीं चटके
किसी नाज़ुक बदन ने सुब्ह-दम यूँ ली है अंगड़ाई
सज्जाद सय्यद
ग़ज़ल
उस की ज़िया से चाँदनी छिटकी उस की सदा से ग़ुंचे चटके
उस को छू कर क्या पूछो हो बाद-ए-सबा ने पैर निकाले