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ग़ज़ल
हमारा आँसू वो बे-बहा है निगाह-ए-हसरत में जच रहा है
मँगा के अब उस पे चौरहे में निसार करने गुहर को चलिए
आग़ा हज्जू शरफ़
ग़ज़ल
जाने कब से हम बैठे हैं सोचों के चौराहे पर
चौरंगी का मेला है जग हम भी देखे जाते हैं
विश्वनाथ दर्द
ग़ज़ल
आड़ी तिरछी कुछ लकीरें ही मिलेंगी शाम तक
शहर के चौराहे पर तू अपनी फ़नकारी न रख
हामिद मुख़्तार हामिद
ग़ज़ल
अपनों ने राज़ों की गठड़ी बीच चौराहे में रख दी
लोगों ने तो बात उछाली रब ने पर्दा-पोशी की