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ग़ज़ल
पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ
कोई आ के शम' जलाए क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
मुज़्तर ख़ैराबादी
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
ठहरो तेवरी को चढ़ाए हुए जाते हो किधर
दिल का सदक़ा तो अभी सर से उतर जाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
यही शैख़-ए-हरम है जो चुरा कर बेच खाता है
गलीम-ए-बूज़र ओ दलक़-ए-उवेस ओ चादर-ए-ज़हरा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ज़िंदगी नज़्र गुज़ारी तो मिली चादर-ए-ख़ाक
इस से कम पर तो ये नेमत नहीं मिलने वाली