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ग़ज़ल
पलंग कूँ छोड़ ख़ाली गोद सीं जब उठ गया मीता
चितर-कारी लगी खाने हमन कूँ घर हुआ चीता
आबरू शाह मुबारक
ग़ज़ल
अल्लाह री गुमरही बुत ओ बुत-ख़ाना छोड़ कर
'मोमिन' चला है का'बा को इक पारसा के साथ
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
अल्लाह रे गुमरही बुत ओ बुत-ख़ाना छोड़ कर
'मोमिन' चला है काबे को इक पारसा के साथ
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
हसीं यादें सुनहरे ख़्वाब पीछे छोड़ आए हैं
मुहाजिर की कहानी में हज़ारों मोड़ आए हैं
ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर
ग़ज़ल
जी पर यही ठनी है तो आज उस को छेड़ कर
खानी मुझे भी गालियाँ दो चार हो सो हो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
निगाह-ए-‘अफ़्व हो मुर्शिद कि तेरे 'ख़ाना-ब-दोश'
मकाँ को छोड़ के अब तो मकीं पे आन पड़े
समर ख़ानाबदोश
ग़ज़ल
सबा के छेड़ जो हम ने गुलों से सुब्ह-दम देखी
तो उस गुल-रू से हम को छेड़-ख़्वानी अपनी याद आई
हकीम आग़ा जान ऐश
ग़ज़ल
नहीं मुमकिन कि हम काबा को जाएँ छोड़ बुत-ख़ाना
करे वाइज़ हमें इरशाद जितना उस का जी चाहे
इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन
ग़ज़ल
बैठे बैठे कहीं बुलबुल को जो छेड़ा मैं ने
तो नसीम उस की बदल हो के खड़ी मुझ से लड़ी
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
अब इस दुनिया में दुनिया छोड़ कर रहना ही बेहतर है
कहानी थी बड़ी लेक 'आफ़रीदी' ने तो छोटी की
क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी
ग़ज़ल
सौंप कर ख़ाना-ए-दिल ग़म को किधर जाते हो
फिर न पाओगे अगर उस ने ये घर छोड़ दिया
ज़ैनुल आब्दीन ख़ाँ आरिफ़
ग़ज़ल
मैं हक़ाएक़ के सहारे अब तलक लड़ता रहा
फिर अचानक उस ने बढ़ कर इक कहानी छोड़ दी