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ग़ज़ल
अब तिरी यादों के निश्तर भी हुए जाते हैं कुंद
हम को कितने रोज़ अपने ज़ख़्म छीले हो गए
शाहिद कबीर
ग़ज़ल
रात भर चिल्ले वज़ीफ़े वो तहज्जुद और फज्र
मिल गया अब तो सिला ऐ मेरी माँ अच्छी तो हो
कफ़ील आज़र अमरोहवी
ग़ज़ल
जिस की बोसे के तसव्वुर से छिले गाल की खाल
ताब क्या लावे अरक़ पोंछते रुमाल की खाल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
बे-दर्द वो ऐसा है कि मरहम की जगह हाए
छिड़के है नमक मेरे हर इक ज़ख़्म छिले पर
जुरअत क़लंदर बख़्श
ग़ज़ल
वो आशिक़ी की मिस्ल में मंज़ूर है मुदाम
चिल्ले मैं ग़म के बैठ जो खींचा कमान-ए-हिज्र
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
देखिए किस जन्नती के आज खुलते हैं नसीब
तेग़ क्यूँ तोले हैं ये चिल्ले चढ़ाए किस लिए
दत्तात्रिया कैफ़ी
ग़ज़ल
चिल्ले की मानिंद खींचूँ जब तलक बर में न तंग
कब मिटे है उस बुत-ए-हरजाई-ए-चंचल की चुल