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ग़ज़ल
निगह-ए-शोख़ में और दिल में हैं चोटें क्या क्या
आज तक हम न समझ पाए कि झगड़ा क्या है
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
निगह को बेबाकियाँ सिखाओ हिजाब-ए-शर्म-ओ-हया उठाओ
भुला के मारा तो ख़ाक मारा लगाओ चोटें जता-जता कर
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
अब ऐसी करम की बातों से दबती हैं कहीं दिल की चोटें
तुम जितना मिटाते जाते हो ये नक़्श उभरते आते हैं
जमीलुद्दीन आली
ग़ज़ल
नई नई चोटें खा खा कर जब बे-कल हो हो जाओगे
मुझ को हमदर्द अपना समझ कहने को ग़म के आओगे तुम
रज़ा अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
ज़ेहन परेशाँ हो जाता है और भी कुछ तन्हाई में
ताज़ा हो जाती हैं चोटें सब जैसे पुरवाई में
ज़ुबैर अमरोहवी
ग़ज़ल
फ़रोग़-ए-लाला-ओ-गुल का तमाशा देखने वाले
ये मेरे दिल की चोटें हैं जो उभरी हैं गुलिस्ताँ में