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ग़ज़ल
गुल-बदनों को तकते रहना बातें करना ख़ुशबू की
निगह-ए-गुल का क़र्ज़ चुकाना हम को अच्छा लगता था
कृष्ण अदीब
ग़ज़ल
अगर मैं फ़र्ज़ था तो फिर निभाया क्यों नहीं तुम ने
अगर मैं क़र्ज़ था तो फिर चुकाना भी ज़रूरी था
कमल हातवी
ग़ज़ल
इस दुनिया में कुछ पाने का मूल चुकाना पड़ता है
मिली है शोहरत जिन को ज़ियादा वो अपनों से दूर हुए
देवमणि पांडेय
ग़ज़ल
ज़की हर एक ख़्वाहिश की चुकाना पड़ती है क़ीमत
तलब हम इस लिए अब उस से आसाइश नहीं करते