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ग़ज़ल
ज्ञान लुटाने निकला था और झोली में भर लाया प्यार
मैं ऐसा रंग-रेज़ हूँ जिस पे रंग चुनर का चढ़ बैठा
नवीन सी. चतुर्वेदी
ग़ज़ल
मुझे दी थी मिरी माँ ने जो इक तहज़ीब की चूनर
मैं जब भी ओढ़ कर निकलूँ तो मेरा सर महकता है
दिव्या भसीन कोचर
ग़ज़ल
मेरे ग़म का शायद तुम को इस से कुछ अंदाज़ा हो
मैं ने उस की चूनर को अब धानी कहना छोड़ दिया
नफ़स अम्बालवी
ग़ज़ल
तबीअ'त अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
ज़ख़्मों पर मरहम लगवाओ लेकिन उस के हाथों से
चारा-साज़ी एक तरफ़ है उस का छूना एक तरफ़
वरुन आनन्द
ग़ज़ल
रहा करते हैं क़ैद-ए-होश में ऐ वाए-नाकामी
वो दश्त-ए-ख़ुद-फ़रामोशी के चक्कर याद आते हैं