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ग़ज़ल
इक दरवेश से ले आया हूँ दे कर शोर का काठ कबाड़
हिज्र की लकड़ी चुप की हांडी और चूल्हा ख़ामोशी का
दानिश अज़ीज़
ग़ज़ल
तमाम रिश्ते तमाम नाते मैं ज़िंदगी में ही खो चुका हूँ
सो मेरी मय्यत पे चार आँसू बहाने वाला कोई न होगा
जब्बार वासिफ़
ग़ज़ल
सँभाला चूल्हा चक्की और बरसों फालियाँ धोईं
मगर डाला नहीं इक दिन भी पेशानी पे बल हम ने