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ग़ज़ल
खड़ा हूँ यूँ किसी ख़ाली क़िले के सेहन-ए-वीराँ में
कि जैसे मैं ज़मीनों में दफ़ीने देख लेता हूँ
मुनीर नियाज़ी
ग़ज़ल
हँसी के साथ याँ रोना है मिसल-ए-क़ुलक़ुल-ए-मीना
किसी ने क़हक़हा ऐ बे-ख़बर मारा तो क्या मारा
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
सैर ही करके आ जाएँगे फिर बाज़ार-ए-तमाशा की
जिस शय को भी हाथ लगाएँ क़ीमत बहुत ज़ियादा है
ज़फ़र इक़बाल
ग़ज़ल
मय-ख़ाने में सौ मर्तबा मैं मर के जिया हूँ
है क़ुलक़ुल-ए-मीना मुझे क़ुम-क़ुम से ज़ियादा