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ग़ज़ल
बहुत झिड़का बहुत डाँटा बहुत तंबीह की मुझ को
बहुत पुर-लुत्फ़ था उन का ख़िताब अव्वल से आख़िर तक
मनोहर सहाये अनवर
ग़ज़ल
ग़ैर को उस ने शब-ए-वस्ल में डाँटा दो बार
मिल गया मुझ को वफ़ाओं का सिला मेरे बा'द
क़ाज़ी गुलाम मोहम्मद
ग़ज़ल
ये किस का तसव्वुर है ये किस का फ़साना है
जो अश्क है आँखों में तस्बीह का दाना है