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ग़ज़ल
हुज़ूर-ए-दावर-ए-महशर क़यामत-ख़ेज़ सामाँ था
हज़ारों हाथ थे और एक क़ातिल का गिरेबाँ था
राजा नौशाद अली ख़ान
ग़ज़ल
'अज़ीज़' उस की झलक किरदार से भी तो नुमायाँ हो
यक़ीं जो आप ज़ात-ए-दावर-ए-महशर में रखते हैं