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ग़ज़ल
इतना मक़्दूर मुझे दीजो तू ऐ मेहदी-ए-दीं
मारे कोड़ों के उड़ा दूँ ख़र-ए-दज्जाल की खाल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
अज़हर बख़्श अज़हर
ग़ज़ल
अगर इस दौर में उठना है तो उठ जाने दे मौला
किसी मोमिन को क्यों हो फ़ित्ना-ए-दज्जाल से मतलब
शमशाद शाद
ग़ज़ल
फिर वही क़हर वही फ़ित्ना-ए-दज्जाल के दिन
फिर वही क़िस्सा-ए-अस्हाब-ए-कहफ़ खींचता है
क़मर सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
अनवर मिर्ज़ापुरी
ग़ज़ल
उठा है शोर ख़ुद अपने ही अंदर से मगर अक्सर
दहल के बंद कर लेना पड़ी हैं खिड़कियाँ हम को
अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
ग़ज़ल
मूँग छाती पे जो दलते हैं किसी की देखना
जूतियों में दाल उन की ऐ 'ज़फ़र' बट जाएगी