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ग़ज़ल
जल्वा पाबंद-ए-नज़र भी है नज़र-साज़ भी है
पर्दा-ए-राज़ भी है पर्दा-दर-ए-राज़ भी है
ग़ुलाम रब्बानी ताबाँ
ग़ज़ल
गर फ़रोग़-ए-ज़ात से निकलो तो कुछ हासिल भी हो
वर्ना आख़िर में तुम्हारी सब तग-ओ-दौ राएगाँ
हिदायतुल्लाह
ग़ज़ल
मिल गई है बादिया-पैमाई से मंज़िल मिरी
काम आई है बिल-आख़िर सई-ए-ला-हासिल मिरी
ग़ुलाम हुसैन साजिद
ग़ज़ल
अश्क-ए-ग़म शोरिश-ए-पिन्हाँ की ख़बर देते हैं
ये वो क़तरे हैं जो तूफ़ाँ की ख़बर देते हैं