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ग़ज़ल
फिर मुझे क़िस्मत तुम्हारे शहर में लाने को है
फिर तुम्हारे शहर में नूर-ए-सहर छाने को है
सहर अलीग
ग़ज़ल
न दिल में याद न आँखों में कोई ख़्वाब-ए-सहर
बिखरते जिस्म के मलबे में ढूँढता क्या है
मुनीरुद्दीन सहर सईदी
ग़ज़ल
इस दुनिया में अपने पराए की है 'सहर' पहचान किसे
महफ़िल-ए-जाँ में मुझ को आए एक ज़माना बीत गया