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ग़ज़ल
सख़्त-जानी से मैं आरी हूँ निहायत ऐ 'तल्ख़'
पड़ गए हैं तिरी शमशीर में दंदाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
नज़र चश्म-ए-ख़रीदारी सीं करता दिलबर-ए-नादाँ
अगर क़तरे मिरे आँसू के दुरदाने हुए होते
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
देखे हैं हँसने में जिस दिन से दुर-ए-दनदान-ए-यार
चैन मिस्ल-ए-गौहर-ए-ग़लताँ किसी पहलू नहीं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
क़ुर्स-ए-ख़ुर को देख कर तस्कीं रख ऐ मेहमान-ए-सुब्ह
ता-दहान-ए-शाम पहुँचाता है राज़िक़ नान-ए-सुब्ह
पंडित दया शंकर नसीम लखनवी
ग़ज़ल
नाज़ फ़रमाए शबाब ऐ नय्यर-ए-ताबान-ए-हुस्न
तार चाँदी का तिरी कंघी के दंदाने में है
तल्हा रिज़वी बर्क़
ग़ज़ल
देता हूँ तुम को ख़ुश्की-ए-मिज़्गाँ की मैं दुआ
मतलब ये है कि दामन-ए-पुर-नम मिले तुम्हें
जौन एलिया
ग़ज़ल
कहीं तार-ए-दामन-ए-गुल मिले तो ये मान लें कि चमन खिले
कि निशान फ़स्ल-ए-बहार का सर-ए-शाख़-सार कोई तो हो
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
बस अब तो दामन-ए-दिल छोड़ दो बेकार उम्मीदो
बहुत दुख सह लिए मैं ने बहुत दिन जी लिया मैं ने