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ग़ज़ल
ऐ दिल वालो घर से निकलो देता दावत-ए-आम है चाँद
शहरों शहरों क़रियों क़रियों वहशत का पैग़ाम है चाँद
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
देखा गया न मुझ से मआनी का क़त्ल-ए-आम
चुप-चाप मैं ही लफ़्ज़ों के लश्कर से कट गया
फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी
ग़ज़ल
वोहीं फिर दरबार-ए-शाह-ए-हिन्द में रख कर क़दम
नाचने गाने लगी हँस हँस ब-ज़ेबाई बसंत
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
मैं तो जब जानूँ कि भर दे साग़र-ए-हर-ख़ास-ओ-आम
यूँ तो जो आया वही पीर-ए-मुग़ाँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
कहो तो हम भी चलें 'फ़ैज़' अब नहीं सर-ए-दार
वो फ़र्क़-ए-मर्तबा-ए-ख़ास-ओ-आम कहते हैं