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ग़ज़ल
यहाँ तो ख़ुद तिरी हस्ती है इश्क़ को दरकार
वो और होंगे जिन्हें मुस्कुरा के लूट लिया
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
हम ऐसे सर-फिरे दुनिया को कब दरकार होते हैं
अगर होते भी हैं बे-इंतिहा दुश्वार होते हैं
अब्बास क़मर
ग़ज़ल
दर-ख़ुर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ
फिर ग़लत क्या है कि हम सा कोई पैदा न हुआ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ने इश्क़ के क़ाबिल हैं ने ज़ोहद के दर्खुर हैं
ऐ 'मुसहफ़ी' अब हम से कुछ काम नहीं होता
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
रस्म-ए-सुपुर्दगी को कब दर्खुर-ए-ए'तिना कहा
ख़ुद से जो था गुरेज़-पा सब से गुरेज़ कर गया