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ग़ज़ल
रहा करती हैं पहरों महव-ए-नज़्ज़ारा में हम अपने
सरापा हो रहे हैं अब तो अपने आप दर्पन हम
फैज़ दकनी
ग़ज़ल
हम हैं उस का ही अक्स मगर है बीच में जीवन का दर्पन
जब टूटेगा जीवन-दर्पन तब ज़ाहिर होगी सच्चाई
दीप्ति मिश्रा
ग़ज़ल
जश्न जीत का कौन मनाए कौन उठाए हार का ग़म
अक्स मिरा भी बिखरा सा है टूट गया वो दर्पन भी
विजय शर्मा
ग़ज़ल
बरसती रोज़ हैं आँखें ये बारिश ही नहीं रुकती
तुम्हें भीगे हुए अश्कों का ये दामन बुलाता है