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ग़ज़ल
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
ज़माने का मोअल्लिम इम्तिहाँ उन का नहीं करता
जो आँखें खोल कर ये दर्स-ए-हस्ती याद करते हैं
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
हमारी दर्स-गाहों की निज़ामत ऐसी बिगड़ी है
किताबें पढ़ के भी बच्चों में हुश्यारी नहीं आई
अब्बास दाना
ग़ज़ल
फ़ना तालीम-ए-दर्स-ए-बे-ख़ुदी हूँ उस ज़माने से
कि मजनूँ लाम अलिफ़ लिखता था दीवार-ए-दबिस्ताँ पर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
जो आप दर से उठा न देते कहीं न करता मैं जब्हा-साई
अगरचे ये सरनविश्त में था तुम्हारे सर की क़सम न होता
मोमिन ख़ाँ मोमिन
ग़ज़ल
इतना अफ़्साना-ए-फ़ुर्क़त को किया इश्क़ ने ज़ब्त
सिर्फ़ ये दर्स पढ़ाया है कि जी जानता है