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ग़ज़ल
शब बीती चाँद भी डूब चला ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े में
क्यूँ देर गए घर आए हो सजनी से करोगे बहाना क्या
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ख़िल्क़त के आवाज़े भी थे बंद उस के दरवाज़े भी थे
फिर भी उस कूचे से गुज़रे फिर भी उस का नाम लिया है
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
जब तक माथा चूम के रुख़्सत करने वाली ज़िंदा थी
दरवाज़े के बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था
अज़हर फ़राग़
ग़ज़ल
इक रात तो क्या वो हश्र तलक रक्खेगी खुला दरवाज़े को
कब लौट के तुम घर आओगे सजनी को बताओ इंशा-जी
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
फिर आज तिरे दरवाज़े पर बड़ी देर के बा'द गया था मगर
इक बात अचानक याद आई मैं बाहर ही से लौट आया