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ग़ज़ल
अपनी मर्ज़ी से हुए थे ना-मुक़द्दर की तरफ़
दश्त-ज़ाद अब दौड़ते हैं क्यों समुंदर की तरफ़
सय्यद कौनैन हैदर काज़मी
ग़ज़ल
दश्त-ज़ार-ए-ग़म में आतिश ज़ेर-ए-पा हम भी रहे
इक सुलगती तिश्नगी से आश्ना हम भी रहे