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ग़ज़ल
ग़ैर से दूर, मगर उस की निगाहों के क़रीं
महफ़िल-ए-यार में इस ढब से अलग बैठा हूँ
पीर नसीरुद्दीन शाह नसीर
ग़ज़ल
ढब देखे तो हम ने जाना दिल में धुन भी समाई है
'मीरा-जी' दाना तो नहीं है आशिक़ है सौदाई है
मीराजी
ग़ज़ल
उस की दुज़्दीदा निगह ने मिरे दिल में छुप कर
तीर इस ढब से लगाया है कि जी जाने है
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
निगाह-ए-यार मिल जाती तो हम शागिर्द हो जाते
ज़रा ये सीख लेते दिल के ले लेने का ढब क्या है