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ग़ज़ल
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
रफ़्ता रफ़्ता मुंक़लिब होती गई रस्म-ए-चमन
धीरे धीरे नग़्मा-ए-दिल भी फ़ुग़ाँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
बे-हद ग़म हैं जिन में अव्वल उम्र गुज़र जाने का ग़म
हर ख़्वाहिश का धीरे धीरे दिल से उतर जाने का ग़म
अज़्म बहज़ाद
ग़ज़ल
ख़त के पुर्ज़े नामा-बर की लाश के हमराह हैं
किस ढिटाई से मिरे ख़त का जवाब आने को है
फ़ानी बदायुनी
ग़ज़ल
अनवर मिर्ज़ापुरी
ग़ज़ल
घर में चीज़ें बढ़ रही हैं ज़िंदगी कम हो रही है
धीरे धीरे घर की अपनी रौशनी कम हो रही है
फ़रहत एहसास
ग़ज़ल
जो हवस फ़रोश थे शहर के सभी माल बेच के जा चुके
मगर एक जिंस-ए-वफ़ा मिरी सर-ए-रह धरी की धरी रही
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
धरी रह जाएगी पाबंदी-ए-ज़िंदाँ जो अब छेड़ा
ये दरबानों को समझा दो कि दीवाने बहुत से हैं