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ग़ज़ल
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
जौन एलिया
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
वही शख़्स जिस पे अपने दिल-ओ-जाँ निसार कर दूँ
वो अगर ख़फ़ा नहीं है तो ज़रूर बद-गुमाँ है
बशीर बद्र
ग़ज़ल
रेत भरी है इन आँखों में आँसू से तुम धो लेना
कोई सूखा पेड़ मिले तो उस से लिपट के रो लेना
बशीर बद्र
ग़ज़ल
क़त्ल-ए-दिल-ओ-जाँ अपने सर है अपना लहू अपनी गर्दन पे
मोहर-ब-लब बैठे हैं किस का शिकवा किस के साथ करें