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ग़ज़ल
रुस्वाइयों के ख़ौफ़ से उठता नहीं मैं 'दिल'
ऐ काश दिल को रखता किसी बंदिशों में दोस्त
दिल सिकन्दरपुरी
ग़ज़ल
मैं ख़ुद से एक भी लम्हा बरी नहीं होता
दिल-ओ-दिमाग़ को बाँधे है इल्तिफ़ात की डोर
दिल सिकन्दरपुरी
ग़ज़ल
ज़ामिन नश्व-ओ-नुमा-ए-गुल-ए-तर है ऐ 'दिल'
दर्द-मंदी की ख़लिश सी जो दिल-ए-ख़ार में है