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ग़ज़ल
कई बार इस का दामन भर दिया हुस्न-ए-दो-आलम से
मगर दिल है कि इस की ख़ाना-वीरानी नहीं जाती
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
निज़ाम-ए-हर-दो-आलम इंतिज़ाम-ए-वुसअ'त-ए-दिल है
ये जो कुछ है वही सब कुछ है सब कुछ इस में शामिल है
मुमताज़ अहमद ख़ाँ ख़ुशतर खांडवी
ग़ज़ल
'आलम' ख़ुदा के वास्ते कह दो जो दिल में है
बज़्म-ए-सुख़न में आज का सरदार मैं ही हूँ
प्रोफ़ेसर महमूद आलम
ग़ज़ल
उन्हें 'आलम' किसी सूरत में मंज़िल मिल नहीं सकती
फ़क़त दो गाम चल कर ही जो डेरा डाल देते हैं
मोहम्मद इश्तियाक़ आलम
ग़ज़ल
मर्ग-ए-आशिक़ पर जो बरहम हो दो-आलम का वरक़
हैफ़ है ऐ जाँ तुझे मलना कफ़-ए-अफ़सोस का