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ग़ज़ल
वस्फ़ दैर-ओ-काबा का हम ने जुदागाना किया
एक ही मज़मून था फ़िक़रा दो-रंगा हो गया
मिर्ज़ा मासिता बेग मुंतही
ग़ज़ल
नहीं दो क़ुब्बा-ए-पिस्तान शोख़-ओ-शंग सीने पर
नज़र आते हैं मीना-ए-मय-ए-गुल-रंग सीने पर