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ग़ज़ल
'आली' जिस का फ़न्न-ए-सुख़न में इक अंदाज़ निराला था
नक़्द-ए-सुख़न में ज़िक्र ये आया दोहे पढ़ने वाला था
जमीलुद्दीन आली
ग़ज़ल
दोहे कहने और पढ़ने का ऐसा तर्ज़ निकाला था
सुनने वाले सर धुनते थे और पहरों पढ़वाते थे
जमीलुद्दीन आली
ग़ज़ल
'मीरा-जी' के दोहे गाओ या कि 'मीर' के शे'र पढ़ो
दर्द के क़िस्से सब ने लिखे हैं अपनी अपनी बोली में
फ़ारूक़ अंजुम
ग़ज़ल
कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ कब तक रह दिखलाओगे
कब तक चैन की मोहलत दोगे कब तक याद न आओगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
लाल डोरे तिरी आँखों में जो देखे तो खुला
मय-ए-गुल-रंग से लबरेज़ हैं पैमाने दो
मियाँ दाद ख़ां सय्याह
ग़ज़ल
हमारे दीदा-ए-बे-ख़्वाब को तस्कीन क्या दोगे
हमें लूटा है दुनिया ने सितारो तुम तो सो जाओ
क़ाबिल अजमेरी
ग़ज़ल
आँख से है वस्ल का इक़रार दिल दुगदा में है
तुम ज़बाँ से अपनी कह दोगे तो क्या हो जाएगा
बेख़ुद देहलवी
ग़ज़ल
दाद-ख़्वाहों से वो कहते हैं कि हम भी तो सुनें
दोगे तुम हश्र में सब मिल के दुहाई क्यूँकर
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
अरे मुझ पे नाज़ वालो ये नियाज़-मंदियाँ क्यों
है यही करम तुम्हारा तो मुझे न दोगे जीने
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
दोश-ए-हवा पर उड़ने वाले ख़िज़ाँ के आख़िरी पत्ते
अपनी अकेली जान ग़म-ए-हालात अकेला कमरा
ऐतबार साजिद
ग़ज़ल
सियह पोशाक दोश-ए-नाज़ पर बिखरी हुई ज़ुल्फ़ें
मिरे मातम की शिरकत को बड़े जोबन से निकलेंगे