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ग़ज़ल
मगर ये क़त्ल-ओ-ग़ारत फ़िल्म नाटक क्या डरामा है
हक़ीक़त तल्ख़ है इतनी फ़साना साथ चलता है
सफ़वत अली सफ़वत
ग़ज़ल
हमारी मौत पर भी गर डरामा चलते रहना है
तो इस किरदार से बाहर महूरत से निकलते हैं
मुहम्मद राशिद अतहर
ग़ज़ल
यास-ओ-उमीद-ओ-शादी-ओ-ग़म ने धूम उठाई सीने में
ख़ूब मुझे है आज धमा-धम मार-कुटाई सीने में
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
दमा-दम शो'बदे हम को दिखाता है कोई जल्वा
कहीं शैख़-ए-हरम हो कर कहीं पीर-ए-मुग़ाँ हो कर
हरी चंद अख़्तर
ग़ज़ल
ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर
ग़ज़ल
दमा की वो मरीज़ा है मुझे खाँसी ने घेरा है
बुढ़ापे में बड़ी मजबूरियाँ दोनों तरफ़ से हैं