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ग़ज़ल
मुझे फ़ख़्र है इसी पर ये करम भी है मुझी पर
तिरी कम-निगाहियाँ भी मुझे क्यूँ न हों गवारा
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
शाहों पे फ़ख़्र करते थे इस मुल्क के गदा
था मिस्ल-ए-जाम-ए-जम मय-ओ-मीना-ए-लखनऊ
वाजिद अली शाह अख़्तर
ग़ज़ल
अब उन्हें पहचानते भी शर्म आती है हमें
फ़ख़्र करते थे कभी जिन की मुलाक़ातों पे हम
जाँ निसार अख़्तर
ग़ज़ल
तुझे फ़ख़्र अपने सितम पे है कि असा-ए-राह-नुमा बना
मुझे नाज़ अपनी वफ़ा पे है कि चराग़-ए-राहगुज़र हुई
कलीम आजिज़
ग़ज़ल
'ज़फ़र' जो दो जहाँ में गौहर-ए-मक़्सूद था अपना
जनाब-ए-फ़ख़्र-ए-दीं की वो मदद-गारी से हाथ आया
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
तुझ को किस नाम से ऐ फ़ख़्र मिरे याद करूँ
बाप है पीर है मुर्शिद है ख़ुदा है क्या है