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ग़ज़ल
मैं ब-सद-ब-सद-फ़ख़्रिया ज़ुहहाद से कहता हूँ 'मजाज़'
मुझ को हासिल, शर्फ़-ए-बैअत-ए-ख़य्याम अभी
असरार-उल-हक़ मजाज़
ग़ज़ल
देखा मैं साथ ढोल के सूली पर उन का सर
फ़ख़्रिय्या वो जो फिरते थे तब्ल-ओ-अलम के साथ
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
उठाना ख़ुद ही पड़ता है थका टूटा बदन 'फ़ख़री'
कि जब तक साँस चलती है कोई कंधा नहीं देता
ज़ाहिद फख़री
ग़ज़ल
उस को भूले बिना कोई चारा नहीं वो हमारा नहीं
इश्क़ इक बार है ये दोबारा नहीं वो हमारा नहीं
फ़ाख़िरा बतूल
ग़ज़ल
इक लिबास-ए-फ़ाख़िरा है सुर्ख़ ग़र्क़ाबी महल है
कुछ पुरानी हो गई है पर कहानी चल रही है
सिदरा सहर इमरान
ग़ज़ल
शर्म-ओ-हया अदब के जो थे कुछ लिबास-ए-फ़ाख़िरा
घर में रखे रखे ही वो तार तार हो गए