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ग़ज़ल
रहा करते हैं क़ैद-ए-होश में ऐ वाए-नाकामी
वो दश्त-ए-ख़ुद-फ़रामोशी के चक्कर याद आते हैं
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
अजब सी ख़ुद फ़रामोशी है मुझ पर रात-दिन तारी
मिरे ऐ दोस्त पढ़ मंतर मैं ख़ुद को भूल जाता हूँ
अर्पित शर्मा अर्पित
ग़ज़ल
बेदम शाह वारसी
ग़ज़ल
हम ज़ूद-फ़रामोशी के लिए बदनाम बहुत हैं फिर भी 'बशर'
जब जब भी चली मदमाती पवन उड़ता हुआ आँचल याद आया
बशर नवाज़
ग़ज़ल
फ़रामोशी है लेकिन याद रखता है तिरे दर को
दर-ए-अग़्यार पर 'साक़िब' कभी साइल नहीं होता
साक़िब लखनवी
ग़ज़ल
या अलम-कोशी रही या ख़ुद-फ़रामोशी रही
दिल किसी दिन दिल न था या दर्द था या कुछ न था