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ग़ज़ल
बिल-यक़ीं लख़्त-ए-जिगर अपना था फ़रज़ंद-ए-ख़लील
सुर्ख़-रू दीदा-ए-तर है है कि क़ुर्बां कर दिया
फ़ैज़ झंझानवी
ग़ज़ल
बाप का है फ़ख़्र वो बेटा कि रखता हो कमाल
देख आईने को फ़रज़ंद-ए-रशीद-ए-संग है
मीर मोहम्मदी बेदार
ग़ज़ल
जिसे सब नूह के फ़रज़ंद कहते हैं कि तूफ़ाँ था
किसी जाँ-दादा-ए-ख़ामोश का अंदोह-ए-पिन्हाँ था
बयान मेरठी
ग़ज़ल
मतला-ए-बे-अनवार से फूटा शोख़ तबस्सुम किरनों का
रात के घर में सूरज जैसा जब फ़रज़ंद हुआ