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ग़ज़ल
यूसुफ़ ही ज़र-ख़रीदों में फ़ीरोज़-बख़्त था
क़ीमत में जिस की फिर वही शाही का तख़्त था
शेर मोहम्मद ख़ाँ ईमान
ग़ज़ल
तीरा-बख़्ती नहीं जाती दिल-ए-सोज़ाँ की 'फ़िराक़'
शम्अ के सर पे वही आज धुआँ है कि जो था
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
अहमद हुसैन माइल
ग़ज़ल
उस्तुरा फिरने से रू-ए-यार पर है दौर-ए-ख़त
चाल उस कम-बख़्त ने सीखी है क्या परकार की
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
पाया सियाह-बख़्ती-ए-उश्शाक़ ने भी औज
फ़ीरोज़ा-ए-फ़लक पे किया कुंदा नाम-ए-ज़ुल्फ़
अब्दुल्ल्ला ख़ाँ महर लखनवी
ग़ज़ल
फ़राज़-ए-दार की अज़्मत में कुछ कलाम नहीं
बुलंद-बख़्ती के सब सिलसिले यहीं से चले