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ग़ज़ल
वो आवेंगे मिरे घर वा'दा कैसा देखना 'ग़ालिब'
नए फ़ित्नों में अब चर्ख़-ए-कुहन की आज़माइश है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
नर्गिस ओ गुल की खिली जाती हैं कलियाँ देखो सब
फिर भी उन ख़्वाबीदा फ़ित्नों को जगाती है बहार
मज़हर मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ
ग़ज़ल
ले के अपनी ज़ुल्फ़ को वो प्यारे प्यारे हाथ में
कहते हैं फ़ित्नों की चोटी है हमारे हाथ में
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
हश्र में फ़ित्नों से अच्छी बज़्म-आराई हुई
आ के दुनिया ख़ुद तमाशा ख़ुद-तमाशाई हुई
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
हसीं ताबीर-ए-मुस्तक़बिल सही इस की मगर 'अनवर'
नए फ़ित्नों का अब ख़्वाब-ए-परेशाँ कौन देखेगा
अनवर साबरी
ग़ज़ल
ये हम अहल-ए-ग़म की मंज़िल है दबे क़दम गुज़र जा
कि अजल यहाँ के फ़ित्नों में तिरा शुमार क्या है
वारिस किरमानी
ग़ज़ल
कुछ सोच नहीं कुछ होश नहीं फ़ित्नों के सिवा कुछ जोश नहीं
वो लूट के भागा जाता है ये आग लगाए जाता है
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
अलीम उस्मानी
ग़ज़ल
फ़ित्नों की अर्ज़ानी से अब एक इक तार आलूदा है
हम देखें किस किस के दामन एक भी दामन पाक नहीं