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ग़ज़ल
ये कासा-ए-फ़ीरोज़गूँ है शीशा-बाज़-ए-पुर-फ़ुनूँ
जितने हियल हैं और फ़ुसूँ सब उस के हैं ज़ेर-ए-नगीं
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
ये कासा-ए-फ़ीरोज़-गूँ है शीशा-बाज़-ए-पुर-फ़ुनूँ
जितने हियल हैं और फ़ुसूँ सब इस के हैं ज़ेर-ए-नगीं
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
झुका कर एक मैं सर नाम अपना कर दिया रौशन
फ़ुनून-ए-इश्क़ में कम कोई परवाना सा पक्का है
इश्क़ औरंगाबादी
ग़ज़ल
मैं तो उस दिन से हिरासाँ हूँ कि जब हुक्म मिले
ख़ुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई