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ग़ज़ल
क्या ऐसी मंज़िलों के लिए नक़्द-ए-जाँ गंवाएँ
जो ख़ुद हमारे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा के दम से हैं
इफ़्तिख़ार आरिफ़
ग़ज़ल
क्यूँ रो रो कर नैन गंवाएँ रोने से क्या होता है
सो जा ऐ दिल तू भी सो जा सारा जग ही सोता है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
ग़ज़ल
दुनिया-दारी इक बीमारी सच सच कहना और ख़ुश रहना
मान रखें समान गंवाएँ कब तक आख़िर आख़िर कब तक
ज़ुबैर बहादुर जोश
ग़ज़ल
न गँवाओ नावक-ए-नीम-कश दिल-ए-रेज़ा-रेज़ा गँवा दिया
जो बचे हैं संग समेट लो तन-ए-दाग़-दाग़ लुटा दिया