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ग़ज़ल
कभी है चाँद का हाला नक़ाब-ए-लाला कभी
अनीले रंग दिखाती है ज़ुल्फ़-ए-ग़ालिया-गूँ
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद
ग़ज़ल
बिखरी रही है शब मिरे बाज़ू पे ज़ुल्फ़-ए-यार
करता रहा हूँ ग़ालिया-साई तमाम रात
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ