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ग़ज़ल
इक ज़रा सी गंध क्या पाई कि मंडराने लगीं
कुछ तमन्नाएँ हैं मुर्दा-ख़ोर चीलों की तरह
रहमान मुसव्विर
ग़ज़ल
न गँवाओ नावक-ए-नीम-कश दिल-ए-रेज़ा-रेज़ा गँवा दिया
जो बचे हैं संग समेट लो तन-ए-दाग़-दाग़ लुटा दिया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
मिरी रातों की ख़ुनकी है तिरे गेसू-ए-पुर-ख़म में
ये बढ़ती छाँव भी कितनी घनी मालूम होती है
नुशूर वाहिदी
ग़ज़ल
मिसाल-ए-गंज-ए-क़ारूँ अहल-ए-हाजत से नहीं छुपता
जो होता है सख़ी ख़ुद ढूँड कर साइल से मिलता है
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
गाँठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या डोरी
लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है
हस्तीमल हस्ती
ग़ज़ल
जिस क़दर अफ़्साना-ए-हस्ती को दोहराता हूँ मैं
और भी बे-गाना-ए-हस्ती हुआ जाता हूँ मैं
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
ये गधा जो अपनी ग़फ़्लत से है बेवक़ूफ़ इतना
जो ये ख़ुद को जान जाता बड़ा होशियार होता